Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--11


देवदास : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

11

पिता की मृत्यु के बाद धीरे-धीरे छः महीने बीत गये। देवदास घर में एकदम ऊब गये। सुख नही, शान्ति नही, उस पर एक ही तरह की जीवनचर्या से मन बिल्कुल विरक्त हो चला। तिस पर पार्वती की चिन्ता से चित और भी अव्यवस्थित हो रहा था; फिर आजकल तो उसके एक-एक काम, एक-एक हावभाव के चित्र हर समय आंखो के सामने नाचा करते थे। उस पर भाई-भौजाई के उदासीन व्यवहारो ने देवदास के सन्ताप को और भी दूना कर दिया था।

माता की अवस्था भी देवदास की ही तरह थी। स्वामी की मृत्यु के साथ-ही-साथ उनके सारे सुखो का लोप हो गया। पराधीन होकर इस मकान मे रहना उनके लिए भी धीरे-धीरे असह्य होने लगा।

आज कई दिनों से वे काशीवास का विचार कर रही है। केवल देवदास के अविवाहित होने के कारण वे अभी नही जा सकती है। जब-जब यही कहती है कि, ‘देवदास, अब तुम विवाह कर लो, मेरी साध पूरी हो जाय।’ किन्तु यह कब सम्भव था! एक तो पिता की अभी वर्षी नही हुई, दूसरे अभी कोई इच्छानुकूल कन्या नही मिली। इसी से माता आजकल कभी-कभी दुखित हो जाया करती है कि यदि उस समय पार्वती का विवाह हो गया होता, तो अच्छा होता। एक दिन उन्होने देवदास को बुलाकर कहा‘अब मै यहां नही रहना चाहती, कुछ दिनो के लिए काशी जाके रहने की इच्छा है।’ देवदास की भी यही इच्छा थी, कहा-‘मेरी भी यही सम्मति है। छः महीने के बाद लौट आना।’

‘ऐसा ही करो। फिर लौट के आने पर उनकी क्रिया-कर्म हो जाने के बाद तुम्हारा विवाह कर, तुम्हे गृहस्थ बना देख, मै फिर जाके काशीवास करूंगी।’

देवदास सहमत होकर माता को कुछ दिनो के लिए काशी पहुंचाकर कलकत्ता चले गये।



कलकत्ता आकर देवदास ने तीन-चार दिनो तक चुन्नीलाल को ढूंढा। वे नही मिले, उसे मैस को छोड़कर किसी दूसरी जगह चले गये थे। एक दिन संध्या के समय देवदास को चन्द्रमुखी की बात याद आयी। एक बार देख आना अच्छा होगा। इतने दिनो तक कुछ भी स्मरण नही आया था। इससे कुछ लज्जा-सी मालूम हुई। एक किराये की गाड़ी करके चले। कुछ संध्या हो जाने पर चन्द्रमुखी के मकान के सामने गाड़ी आ खड़ी हुई। बहुत देर तक बुलाने-चिल्लाने के बाद भीतर से स्त्री के कंठ-स्वर मे उत्तर मिला-‘यहां नही है।’ सामने एक बिजली की रोशनी का खम्भा खड़ा था, देवदास ने उसके पास होकर कहा -‘कह सकती हो, वह कहां गयी है?’ खिड़की खोलकर उसने कुछ क्षण देखने के बाद कहा-‘क्या आप देवदास है?’

‘हा।’

‘खड़े रहिये-दरवाजा खोलती हूं।’ दरवाजा खोलकर उसने कहा-‘आइये!’ कंठ-स्वर कुछ परिचितसा जान पड़ा, किन्तु फिर भी पहचान नही सके। थोड़ा अन्धकार भी हो चला था। सन्देह से कहा‘

चन्द्रमुखी कहां रहती है, कुछ कह सकती हो?’

स्त्री ने मीठी हंसी हंसकर कहा-‘हां, तुम ऊपर चलो।’ इस बार देवदास ने पहचान लिया-‘है! तुम्ही हो?’

‘हां, मै ही हूं। देवदास, मुझे एकदम भूल गये?’

ऊपर जाकर देवदास ने देखा, चन्द्रमुखी एक काले किनारे की मैली धोती पहने है, हाथ मे केवल दो कड़ो को छोड़, शरीर पर कोई आभूषण नही है, सिर के केश इधर-उधर बिखरे हुए है, विस्मित होकर देवदास ने पूछा-‘तुम्ही?’ अच्छी तरह से देखा, चन्द्रमुखी पहले की अपेक्षा बहुत दुबली हो गयी है।

देवदास ने पूछा-‘तुम क्या बीमार थी?’

‘कोई शारीरिक बीमारी नही थी, तुम अच्छी तरह से बैठो।’

देवदास ने चारपाई पर बैठकर देखा, घर मे पहले की अपेक्षा आकाश-जमीन का अन्तर हो गया है।

गृहस्वामिनी की भांति उसकी दुर्दशा की भी सीमा नही थी। एक भी सामान नही था। अलमारी, टेबिल, कुर्सी आदि सबके स्थान खाली पड़े है। केवल एक शैया पड़ी थी, चादर मैली थी। दीवाल पर से चित्र हटा दिये गये थे। लोहे की कांटियां अब भी गड़ी हुई थी। दो-एक लाल फीते भी इधर-उधर लटके हुए थे। पहले की वह घड़ी भी बाकेट पर रखी हुई थी, किन्तु निःशब्द थी। आस-पास मकड़ाें ने अपनी इच्छानुकूल जाला बुन रखा था। एक कोने मे एक तेल का दीया धीमी-धीमी रोशनी फैला रहा था, उसी के सहारे से देवदास ने घर की इस नयी सजावट को देखा। कुछ विस्मित और कुछ क्षुब्ध होकर कहा‘दुर्दशा!

तुमसे किसने कहा? मेरा तो भाग्य प्रसन्न हुआ है।’

देवदास समझ नही सके कहा-‘तुम्हारे सब गहने क्या हुए?’

‘बेच डाले।’

‘माल-असबाब?’

‘वह भी बेच डाला।’

‘घर की तस्वीरे भी बेच डाली?’

इस बार चन्द्रमुखी ने हंसकर सामने के एक मकान को दिखाकर कहा-‘उस मकान के मालिक के हाथ बेच दी।’

देवदास ने कुछ देर तक उसके मुंह की ओर देखकर कहा-‘चुन्नी बाबू कहां है?’

‘नही कह सकती। दो महीने हुए, लड़-झगड़कर चले गये, फिर तब से नही आये।’

देवदास को अब और आश्चर्य हुआ। पूछा-‘झगड़ा क्यो हुआ?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘क्या झगड़ा नही होता?’

‘होता है,पर क्यो?’

‘दलाली करने आये थे, इसी से हटा दिया।’

‘किसकी दलाली?’

चन्द्रमुखी ने हंसकर कहा-‘पट्‌टू की।’ फिर कहा-‘तुम नही समझते? एक बड़े आदमी को पकड़ लाये थे। महीने मे दो सौ रुपये, एक सेट गहना और दरवाजे के सामने रहने को एक सिपाही मिलता था, समझे!’

देवदास ने सब समझने के बाद हंसकर कहा-‘वह सब एक भी तो नही देखता हूं।’

‘रहते तब न देखते! मैने उन लोगो को हटा दिया।’

‘उन लोगो का अपराध?’

‘उन लोगो का अपराध कुछ ज्यादा नही था, पर मुझे अच्छा नही लगा।’

देवदास ने बहुत सोचकर कहा- ‘उसी दिन से यहां और कोई नही आया?’

‘नही। उस दिन से क्यो? तुम्हारे जाने के बाद से ही यहां कोई नही आता। सिर्फ बीच-बीच में चुन्नीलाल आ जाते थे, किन्तु दो मास से वी भी नही आते।’

देवदास बिछौने के ऊपर लेट गये। दूसरी ओर देखने लगे, बहुत देर तक चुप रहने के बाद धीरे से कहा-‘चन्द्रमुखी, तब दुकानदारी सब उठा दी?’

‘हां, दिवाला निकाल दिया।’

देवदास ने इस बात का उत्तर न देकर कहा-‘लेकिन रोटी-पानी कैसे चलेगा?’

‘इसीलिए तो जो कुछ गहना-पत्तर था, बेच दिया।’

‘उसमे अब कितना बचा है?’

‘ज्यादा नही, कोई आठ-नौ सौ रुपये होगे। उन्हे एक मोदी के पास रख दिया है, वह मुझे महीने मे बीस रुपये देता है।’

‘बीस रुपये से तो पहले तुम्हारा काम नही चलता था?’

‘नही, आज भी अच्छी तरह से नही चलता है। तीन महीने से महान का किराया बाकी है, इसी से इच्छा होती है कि इन दोनो कड़ो को बेचकर, सब पटाकर और कही चली जाऊं।’

‘कहां जाओगी?’

‘यह अभी निश्चय नही किया है। किसी सस्ते देश, गवंई-गांव मे जाऊंगी जिसमे बीस रुपये महीने मे निर्वाह हो जाय।’

‘इतने दिन से क्यो नही गयी? अगर सचमुच ही तुम्हारा और कोई मतलब नही था तो फिर इतने दिन रहकर व्यर्थ कर्ज क्यो बढ़ाया?’

चन्द्रमुखी सिर नीचा करके कुछ सोचने लगी। उसके जीवन-भर मे बातचीत करने का यह पहला अवसर है। देवदास ने पूछा-चुप क्यो हो?’

चन्द्रमुखी ने शैया के एक ओर संकुचित भाव से बैठकर धीरे-ध्धीरे कहा-‘क्रोध मत करना; जाने के पहले सोचा था कि तुमसे भेट कर लेना अच्छा होगा। आशा करती थी कि एक बार तुम आओगी। आज तुम आये हो, अब कल ही जाने का उद्योग करूंगी। पर कहा जाऊं, कुछ कह सकते हो?’

देवदास विस्मित होकर उठ बैठे; कहा-‘सिर्फ मुझे देखने की आशा से रुकी थी। लेकिन क्यो?’

‘एक ख्याल। तुम मुझसे बहुत घृणा करते थे। इतनी घृणा किसी ने मुझसे कभी नही की, शायद इसीलिए। तुम्हे अब याद है या नहीं, यह मैं नही कह सकती, पर मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि जिस दिन तुम पहले-पहल हां पर आये थे, उसी दिन मेरी नजर तुम पर पड़ी। तुम धनी की सन्तान हो, यह मैं जानती थी; पर धन की आशा से मै तुम्हारी ओर नही खिंची थी। तुम्हारे पहले कितने ही लोग यहां पर आये और गये, पर किसी मे इतना तेज नही पाया। तुमने आने के साथ ही मुझे घायल किया; एक

आयाचित, उपयुक्त, परन्तु अनुचित रूढ़ व्यवहार आरम्भ किया, घृणा से मुंह फेर लिया और अन्त मे तमाशे की तरह कुछ देकर चले गये। ये सब बाते क्या तुम्हारे ध्यान मे आती है?’

देवदास चुप रहे, चन्द्रमुखी फिर कहने लगी-‘उसी दिन से मेरी तुम्हारे ऊपर नजर पड़ी। मै न तुमसे प्रेम करती और न घृणा करती थी, एक नयी चीज को देखकर जैसे मन में हमेशा ध्यान बना रहता है, तुमको भी देखकर उसी तरह किसी भांति नही भूल सकी। तुम्हारे आने पर बड़े भय और सतर्क के साथ रहती थी, पर न आने से कुछ अच्छा भी नहीं लगता था। फिर जाने कैसा मतिभम्र हुआ कि इन दोनो आंखो को सब ही चीजें एक-सी दीखने लगी। मैं पहले की अपेक्षा बिल्कुल बदल गयी, जो पहले थी वह अब नहीं रही। फिर तुमने शराब पीना शुरू किया; शराब से मुझे बड़ी घृणा है। किसी के मतवाला होने पर मुझे उस पर बड़ा क्रोध आता है। पर तुम्हारे मतवाला होने से क्रोध नही होता था, बल्कि बड़ा दुख होता था।’

यह कहकर चन्द्रमुखी ने देवदास के पांव पर हाथ रखकर डबडबायी हुई आंखो से कहा-‘मै बहुत अधम हूं, मेरे अपराधो पर ध्यान नही देना। तुम जितनी ही बाते कहते थे और घृणा करते थे, मै उतनी ही तुम्हारे पास आना चाहती थी।’ अन्त मे सो जाने पर-‘रहने दो, ये बाते नही कहूंगी, नही तो क्रोध कर बैठोगे।’ देवदास ने कुछ नही कहा, नयी तरह बातचीत से उसे कुछ वेदना पहुंचा रही थी। चन्द्रमुखी ने छिपा के आंख पोछकर कहा-‘एक दिन तुमने कहा कि हम लोग कितना सहन करती है, लांछना, अपमान, जघन्य अत्याचार, उपद्रव की बाते! उसी दिन से मुझे बड़ा अभियान हुआ-‘मैने सब बन्द कर दिया।’

देवदास ने बैठकर पूछा-‘लेकिन यह जीवन कैसे कटेगा?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘वह तो पहले ही कह चुकी।’

‘और सोचो, यदि उसने तुम्हारा सब रुपया दाब रखा तो?’

चन्द्रमुखी इससे भयभीत नहीं हुई। शान्त-सहज भाव से कहा-‘आश्चर्य नही, किन्तु इसे भी मैने सोच रखा है कि विपत्ति पड़ने पर तुमसे कुछ भीख मांग लूंगी।’

देवदास ने सोचकर कहा-‘वह पीछे लेना। अभी और कही जाने का उद्योग करो।’

‘कल ही करूंगी। कड़ा बेचकर एक बार मोदी से भेट करूंगी।’

देवदास ने पॉकेट से सौ-सौ रुपये के पांच नोट निकालकर तकिये के नीचे रखकर कहा-‘कड़ा बेचो, सिर्फ मोदी के साथ भेट कर लेना। पर जाओगी कहां, किसी तीर्थ-स्थान मे?’

नही देवदास, तीर्थ और धर्म के ऊपर मेरी अधिक श्रद्धा नही है। कलकत्ता से अधिक दूर नहीं जाऊंगी। आस-ही-पास के किसी गांव मे जाकर रहूंगी।

‘क्या किसी अच्छे घर मे दासी का काम करोगी?’

चन्द्रमुखी की आंखो मे फिर आंसू भर आये। पोछकर कहा-‘इच्छा नही होती। स्वाधीन-भाव से स्वच्छन्द होकर रहूंगी। क्यो दुख करने जाऊं? शारीरिक दुख कभी उठाया नही है, अब भी नही उठा सकूंगी। और अधिक खीचातानी करने से छिन्न-भिन्न हो जाऊंगी।’

देवदास ने विष्ण्ण मुख से कुछ हंसकर कहा-‘पर शहर के पास रहने से प्रलोभन मे पड़ सकती हो।

मनुष्य के मन का विश्वास नही।’

इस बार चन्द्रमुखी का मुख खिल उठा। हंसकर कहा-‘यह बात सच है, मनुष्य का विश्वास नही। पर मै प्रलोभन मे नही पडूंगी। स्त्रियो मे लोभ अधिक है-यह मानती हूं, पर जिस चीज का लोभ रहता है जब उसे ही इच्छापूर्वक छोड़ दिया है, तो फिर मेरे लिए कोई भय नही है। एकाएक अगर किसी झोक मे आकर छोड़ती, तब सावधान होना आवश्यक था, लेकिन इतने समय मे एक दिन भी तो पछतावा नही हुआ, मैं बड़े सुख से हूं।’

देवदास ने सिर हिलाकर कहा-‘स्त्रियो का मन बड़ा चंचल, बड़ा अविश्वासी होता है।’


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